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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> वन्दे विदेह तनया

वन्दे विदेह तनया

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : रामायणम् ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :162
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4763
आईएसबीएन :00-0000-00-00

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प्रभु श्रीराम के जीवन के विषय में जानकारी...

Vande Videh Tanya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

।। श्री राम: शरणं मम ।।

प्राक्कथन

विदेहजा बल्लभ की महती अनुकम्पा का ही प्रतिफल यह प्रवचन रस, सुधी जनों को समर्पित किया जा रहा है। संगीत कला मंदिर और संगीत कला मंदिर ट्रस्ट के द्वारा अनेक वर्षों से ‘‘मानस प्रवचन’’ का यह आयोजन किया जा रहा है। इन संस्थाओं के संस्थापक बिरला दम्पत्ति श्रीमती सरला जी बिरला एवं श्री बसंत कुमार जी बिरला के संकल्प का सुपरिणाम विविध आयोजनों के माध्यम से कलकत्ता के प्रबुद्ध नागरिकों को प्राप्त होता रहता है। पर राम कथा की श्रृंखला लगभग चालीस वर्ष से चल रही है, वह पिछले कुछ वर्षों से भिन्न रूप में भी उपलब्ध हो रही है। प्रवचन श्रवण का अवसर तो उपस्थित श्रोताओं को ही मिलता है। पर प्रवचन जब पुस्तक रूप में प्रकाशित होने लगे तब देश के सुदूर क्षेत्रों में रह रहे निवासियों को भी अनायास उसका लाभ मिलने लगा।

इस क्रम में ‘‘वन्दे विदेह तनया’’ का प्रकाशन संगीत कला मंदिर द्वारा किया जा रहा है।
श्री रमणलाल जी बिन्नानी प्रवचनों के इस यज्ञ क्रम में प्रारम्भिक प्रथम वर्ष से ही जुडे रहे हैं, इस प्रकाशन के मुख्य प्रेरक भी वे ही रहे हैं। अतः वे आशीर्वाद के पात्र हैं।
पुस्तक को लिपिबद्ध तथा प्रूफ रीडिंग का कार्य श्री नन्द किशोर स्वर्णकार ने किया। संपादन मेरे शिष्य श्री उमाशंकर तथा प्रेस कापी में श्री विष्णुकांत पाण्डेय, श्री गोविन्द नायडू तथा चि. आशुतोष की भूमिकाएँ रही हैं।
मेरी सेवा में निरन्तर रहने वाले बेटी मंदाकिनी, मैथिलीशरण तथा आदित्य का भी योगदान रहा, अतः ये सब मेरे आशीर्वाद के पात्र हैं।

-रामकिंकर


।। श्री राम: शरणं मम ।।

(1)


जनकसुता जग जननि जानकी।
अतिसय प्रिय करुनानिधान की।।
ताके जुग पद कमल मनावउँ।
जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ।।
पुनि मन बचन कर्म रघुनायक।
चरन कमल बंदउँ सब लायक।।
राजिवनयन धरें धनु सायक।
भगत बिपति भंजन सुखदायक।।


गिरा अस्थ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न।
बंदउँ सीता राम पद जिन्हहिं परम प्रिय खिन्न।।1.18

प्रभुश्री रामभद्र और करुणामयी, वात्सल्यमयी श्रीसीताजी की कृपा से पुनः इस वर्ष यह सुअवसर मिला है कि ‘संगीत कला मन्दिर ट्रस्ट’ तथा ‘संगीत कला मन्दिर’ के तत्वावधान में भगवत्-चरित्र की चर्चा का सुयोग बना। अभी श्री मंत्रीजी ने स्मरण दिलाया कि यह पैंतीसवाँ वर्ष है। यह तो प्रभु की बड़ी महती अनुकंपा है कि उन्होंने यह धन्यता हम सभी लोगों को प्रदान की। आप सब की उपस्थिति एवं श्रद्धा-भावना निरंतर आनंदित और उत्साहित करती ही है। इस संस्था के संस्थापक श्रीबसंतकुमारजी बिरला तथा सौजन्यमयी सरलाजी बिरला की उपस्थिति से इस भावना में और भी वृद्धि होती है। वे दोनों यहाँ उपस्थित हैं। विशेष प्रसन्नता की बात यह है कि श्रीमती सरलाजी के साथ अब डाक्टरेट की उपाधि जुड़ गई है। आइए, प्रभु के द्वारा जो यह संयोग मिला है उसका हम लोग अधिक से अधिक सदुपयोग करें।

इस बार प्रसंग चुना गया है-‘जगज्जननी सीता’। अभी आपके समक्ष जो चौपाइयाँ पढ़ी गई हैं, वे उस प्रसंग की हैं जहाँ गोस्वामीजी भक्तों की वन्दना करते हैं और सबसे अंत में श्रीसीताजी तथा भगवान राम की वंदना करते हैं। श्रीसीताजी की वंदना करते हुए उन्होंने जो पंक्तियाँ लिखीं, उनका सरल सा अर्थ है कि महाराज श्रीजनक की पुत्री, जगज्जननी और करुणानिधान श्रीराम की अतिशय प्रिया श्रीसीताजी के दोनों चरण कमलों की मैं वंदना करता हूँ जिनकी कृपा से निर्मल बुद्धि प्राप्त होती है। उसके पश्चात् श्रीराम की वंदना करते हुए कहते हैं कि मैं मन, वचन और कर्म से उन प्रभु श्रीरघुवीर की वंदना करता हूँ, जिनमें समस्त गुण-गण विद्यमान हैं, जो धनुष -बाण धारण करने वाले तथा भक्तों की विपत्ति का हरण कर उन्हें सुख देने वाले हैं। इस प्रकार इन दोनों की पृथक-पृथक वंदना करने के बाद फिर उन्होंने दोनों की संयुक्त वंदना की।
 
गोस्वामीजी उसे एक दार्शनिक रूप देते हुए कहते हैं कि जैसे वाणी और अर्थ ये दो अलग-अलग शब्द हैं, पर व्यक्ति यह जानता है कि दोनों में रंचमात्र भेद नहीं है। और जल और बीचि (जल में उठने वाली तरंगें) भले ही शब्द के रूप में भिन्न हों, पर उन दोनों में भी रंचमात्र कोई भेद नहीं है। इसी प्रकार से भिन्न प्रतीत होते हुए भी श्रीसीताजी और प्रभु वस्तुतः अभिन्न हैं। जिन्हें दीनजन अत्यन्त प्रिय हैं, मैं उन श्रीसीतारामजी के चरणों में प्रमाण करता हूँ, वन्दना की इन पंक्तियों में दार्शनिक पक्ष है, भावनात्मक पक्ष है तथा चरित्र का पक्ष तो है ही।

इन पंक्तियों में वर्णन-क्रम की दृष्टि से एक क्रमभंगता है। इसमें प्रारम्भ करते हुए कहा गया कि वे महाराज श्रीजनक की पुत्री हैं और उसके तुरंत बाद ही दूसरा शब्द कह दिया कि वे सारे संसार की जननी हैं। क्रम की दृष्टि से इससें अटपटापन लगता है। क्योंकि संसार में भी जैसा दिखाई देता है कि किसी स्त्री का परिचय जब दिया जाता है, तो प्रथम कन्यारूप में किसकी पुत्री है फिर विवाह के पश्चात्-किसकी पत्नी है और पुत्र उत्पन्न हो जाने पर उस पुत्र का नाम लेकर उसकी माँ के रूप में परिचय दिया जाता है। गोस्वामीजी ने पार्वतीजी का परिचय देने में इसी क्रम का निर्वाह किया। उन्होंने कहा-


जय जय गिरिबर राज किसोरी।

आप महाराज हिमान्चल की पुत्री हैं। और उसके साथ साथ दूसरा वाक्य है-

जय महेस मुख चंद चकोरी।। 1.234.5

‘आप भगवान शंकर के मुख-चन्द्र की चकोरी हैं। और अगला है-

जय गजबदन षड़ानन माता। 1.234.6

आप गणेश और स्वामी कार्तिक की माता हैं। तो क्रम से यही उपयुक्त प्रतीत होता है। पर जब गोस्वामीजी ने श्री सीताजी की वंदना की तो क्रम उलट दिया। उन्होंने कहा कि जो महाराज श्रीजनक की पुत्री हैं, तथा संसार की जननी हैं और जो करुणानिधान की अतिशय प्रिया हैं, उनकी मैं वंदना करता हूँ। किन्तु इस क्रम परिवर्तन के पीछे तुलसीदासजी की जो दार्शनिक पृष्ठभूमि है, आइए उस पर एक दृष्टि डाल लें।

अभी मंत्रीजी ने श्रीराम की विशेषताओं का वर्णन किया। सचमुच भगवान श्रीराम के गुणों के लिए जितने विशेषणों का प्रयोग किया जाए वे थोड़े हैं। जगज्जननी श्रीसीता प्रभु से अभिन्न हैं, अतः उनके लिए भी अनगिनत विशेषणों का प्रयोग किया जा सकता है और किया भी गया। वंदना की इन पंक्तियों में श्रीसीताजी का परिचय देते हुए जो यह कहा गया कि वे राजर्षि जनकजी की पुत्री हैं, इसकी पृष्ठभूमि में एक कथा है जो आपने पढ़ी होगी।

वर्णन इस प्रकार है कि महाराज श्रीमनु राज्य कर रहे हैं और उनकी पतिव्रता पत्नी हैं शतरूपा। महाराज श्रीमनु जब वृद्ध होते हैं तो उन्हें ऐसा लगता है कि भले ही मैंने जीवन में धर्म और कर्तव्य-कर्म का पालन किया है, किन्तु अभी तक जीवन का जो चरम लक्ष्य है उसे मैंने नहीं पाया है। उनके अंतःकरण में प्रभु के दर्शन की उत्कंठा उत्पन्न होती है। वे राज्य पुत्र को दे देते हैं और शतरूपाजी के साथ तपस्या तथा साधना हेतु नैमिषारण्य जाते हैं। उन्होंने गोमती में स्नान किया। मुनियों के आश्रमों में रहकर पुराण और कथा श्रवण किया। फिर दीक्षा लेकर उन्होंने मंत्र-जप प्रारम्भ किया। साधना में वे अग्रसर होते गए। वे कठिन से कठिनतम तपस्या करते हैं। पहले कंद, मूल, फल लेते हैं। फिर उनका भी परित्याग करके केवल जल लेते हैं। फिर जल का भी परित्याग कर केवल वायु लेते हैं। और अंत में इसका भी परित्याग कर देते हैं।

इस प्रगाढ़ तप के अंतराल में ब्रह्माजी आए, भगवान विष्णु आए और भगवान शंकर भी आए, पर मनुजी ने कुछ भी माँगने से इन्कार कर दिया। वे सब लौट गए। अन्त में एक ऐसी स्थिति आई कि जब आकाशवाणी हुई। उन्हें एक स्वर सुनाई पड़ा-राजन। तुम्हारी क्या इच्छा है, तुम क्या चाहते हो ?’ उस स्वर को सुनकर मनुजी ने कहा कि मैं उस स्वरूप का दर्शन करना चाहता हूँ जिसका वर्णन निर्गुण निराकार के रूप में किया गया है तथा सगुण साकार के रूप में भी किया गया है। भगवान शंकर जिस रूप का चिन्तन करते हैं, भुशुण्डिजी जिनके भक्त हैं, और जो मुनियों के द्वारा वन्द्य हैं। इस प्रार्थना पर उनके समक्ष दो रुप प्रकट हुए-भगवान राम तथा उनके वामभाग में जगज्जननी श्रीसीता। महाराज श्रीमनु ने अपनी आकांक्षा प्रकट की कि मैं आपके समान पुत्र प्राप्त करना चाहता हूँ। प्रभु ने मुस्कुराकर कहा कि मैं अपनी तरह खोजने कहां जाऊँगा ? चलिए, मैं ही आपका पुत्र बन जाऊँगा। इसके बाद और एक बात हुई।

मनु और शतरुपा श्रीसीताजी की ओर जिज्ञासा की दृष्टि से देख रहे थे। और तब भगवान राम ने श्रीसीताजी का परिचय देते हुए कहा कि ये जो मेरे वामभाग में दिखाई दे रही हैं, वे आदिशक्ति हैं। इनके द्वारा ही सृष्टि का निर्माण हुआ है। और जब मैं अवतार लूँगा तो मेरे साथ यह भी आवेंगी। ऐसा कहकर वे दोनों अन्तर्दान हो जाते हैं। इस पृष्ठभूमि के वर्णन करने का गोस्वामीजी का एक विशेष उद्देश्य है।

 

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